जैसा की आप सभी जानते हैं की भारत स्वयं में ही एक धार्मिक भू है| और यहाँ हर राज्य में आपको तरह तरह के मंदिर देखने को मिल जायेंगे| और मंदिरों के साथ साथ अनेक तरह की मान्यता और भगवान के दर्शनं भी हो जायेंगे| परन्तु हर मंदिर में क्या आपने कभी इस चीज़ पर गौर किया है की मंदिर का शिखर आखिर नुकीला क्यूं होता है? मंदिरों की छत सपाट क्यों नहीं होती, नुकीली क्यों बनाई जाती है…?

मंदिर की संरचना

हिन्दू मंदिर में अन्दर एक गर्भगृह होता है जिसमें मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है। गर्भगृह के ऊपर टॉवर-नुमा रचना होती है जिसे शिखर (या, विमान) कहते हैं। मन्दिर के गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा के लिये स्थान होता है। इसके अलावा मंदिर में सभा के लिये कक्ष हो सकता है। और मंदिर को बनाने के लिए भी कुछ विशिस्ट शैलियाँ होती है| और आपको बता दें की भारत में मंदिर को बनाने की शैलियों का प्रारम्भ मुख्य रूप से मौर्य काल से ही हो गया था और गुप्तकाल में मंदिर बनना अपनी चरम सीमा पर था| वैसे तो मंदिर बनाने की विभिन्न शैलियाँ हैं परन्तु प्रमुख रूप से 3 शैलियाँ होती है – नागर शैली, द्रविड़ शैली और बेसर शैली| और इसके अलावा भी अनेक शैलियाँ होती हैं जिनमे से कुछ नाम इस प्रकार हैं – विजयनगर शैली, होयसल शैली, नायक शैली, पाक्ष शैली|

1. नागर शैली

नागर शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विंध्य पर्वत माला तक देखा जा सकता है। नागर शैली का क्षेत्र उत्तर भारत में नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र तक है। इस शैली के मंदिरों की ये विशेषता होती है की इन मंदिरों में जलाशय, गोपुरम(मंदिर परिसर के बाहर एक भव्य द्वार) और चार दिवारी देखने को नहीं नहीं मिलती|

इन मंदिरों का निर्माण पीठ के ऊपर होता है जो की एक कम ऊँचा चबूतरा होता है तथा पीठ के नीचे भी एक और ऊँचा चबूतरा होता है जिसे जगति कहा जाता है| कुल मिला कर दो चबूतरे in इस मंदिर के निर्माण का आधार बनते हैं| फिर इस शैली के मंदिरों में आपको शिखर मिलेगा और उन शिखर के उपरी भाग में एक अमलक होता है जो की एक आधार होता है सिखर के ऊपर और फिर एक कलश टॉप पर होता है|

आप देखेंगे की पहले तो इस मंदिर की छत नीचे से चौड़ी होती है और ऊपर जाते जाते पतली हो जाती है| और इनके शिखर ज्यादा ऊँचे नहीं होते है और न ही इनका शिखर मंजिला रूप में होते हैं| तथा इन मंदिरों के गर्भ गृह के बाहर नदी देवियों की मूर्तियाँ होती है जैसे – गंगा, यमुना| और आपको मुख्य मंदिर के आस पास चार सहायक मंदिर का समूह भी मिलेगा, और बीच में प्रमुख मंदिर जिसमे की प्रमुख देवी देवता विराजमान होते हैं| इस समूह को पंचायतन शैली कहा जाता है|

नागरशैली के उपभाग

नागर शैली 3 उपभागो में विभाजित है-

1. ओड़िसा – जो ओड़िसा में विकसित हुई उन्हें ओरिसा शैली कहा जाता है|

इस शैली में यह विशेषता होती है की इन मंदिरों में नक्काशी बाहर की ओर ज्यादा होती है तथा अन्दर की ओर नहीं होती है| तथा छज्जे बालकनी में खम्बो की जगह लोहे की गर्डर का प्रयोग होता है| (ओडिशा के मंदिर में शिखर को देउ ल बोलते है)

2. खजुराहो – मध्यप्रदेश में खजुराहो में जो शैली प्रयोग की जाती है उन्हें खजुराहो शैली कहा जाता है|

इनमे नक्काशी अन्दर तथा बाहर, दोनों ओर होती है| तथा आप यहाँ ओरिसा शैली से ज्यादा मूर्तियाँ पायेंगे|

3. सोलंकी – गुजरात में सोलंकी शासको के संरक्षण में जो शैली विकसित हुई उन्हें सोलंकी शैली कहा जाता है|

आपको इस शैली में जलाशय मिल जायेंगे| और यह शैली प्रमुख रूप से गुजरात में प्रचलित है|

कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

  • कंदरिया महादेव मंदिर (खजुराहो)
  • लिंगराजकाफी मंदिर – भुवनेश्वर (ओड़िसा )
  • जगन्नाथ मंदिर – पुरी (ओड़िसा )
  • कोणार्क का सूर्य मंदिर – कोणार्क (ओड़िसा )
  • मुक्तेश्वर मंदिर – (ओड़िसा )
  • खजुराहो के मंदिर – मध्य प्रदेश
  • दिलवाडा के मंदिर – आबू पर्वत (राजस्थान )
  • सोमनाथ मंदिर – सोमनाथ (गुजरात)

2. द्रविड़ शैली

दक्षिण भारत में विकसत होने के कारण इस शैली को हम द्रविड़ शैली के नाम से जानते हैं| यह शैली कृष्णा नदी के बाद दक्षिण भारत तक पायी जाती है| इस शैली का विकास चोल शाशको की संरंक्ष्ना में हुई थी| इस शैली की विशेषता ये होती है की गर्भ गृह के ऊपर जो सिखर है उसे विमान कहा जाता है और यह पिरामिडनुमा होता है| यह विमान बहुमंजिला होता है, अर्थात की सीडी-नुमा होता है और ये बहुत ही ऊँचे होते हैं|

और इस शैली की सबसे ख़ास विशेषता गोपुरम होता है| जो की एक बहुत ही ख़ास और भव्य द्वार होते है मुख्य मंदिर परिसर से पहले| और यह गोपुरम आमतौर पपर मंदिर से भी ऊँचे होते हैं|

मंदिर की संरचना कुछ इस प्रकार होती है की मंदिर का आधार तीन भागो में होते है, सबसे पहले जगति, फिर उसके ऊपर आता है पीठ और उसके ऊपर अधिश्ठान होता है जिसके ऊपर पूरा मंदिर होता है| आप इसको ऐसे समझ सकते हैं की एक चबूतरे के ऊपर दूसरा तथा दुसरे के ऊपर तीसरा चबूतरा होता है, और उस तीसरे चबूतरे के ऊपर मंदिर की स्थापना होती है|

यहाँ मंदिरों में आपको जलाशय देखने को मिल जाएगा| और यहाँ पर गर्भ गृह के बाहर यक्ष यक्षिनी की मूर्तियाँ मिल जायेगी|

यहाँ आपको परकोटा या चार दिवारी भी देखने को मिलेगी, अर्थात की जो मंदिर है वो चार दिवारी/दीवारों की सीमा से घिरा हुआ होता है|

आपको इस शैली में भी पंचायतन शैली देखने को मिलेगी परन्तु इसमें अंतर यह होता है की मुख्य मंदिर में सीडी-नुमा विमान होगा और बाकी चार सहायक मंदिरों में शिखर पर विमान नहीं बनाया जाता|

कुछ मंदिर इस प्रकार हैं-

  1. बृहदेश्वर मंदिर – तंजौर, तमिलनाडु
  2. शिव मंदिर – गंगईकोंडा चोलपुरम
  3. महाबलीपुरम रथ मंदिर – महाबलीपुरम

3. बेसर शैली

यह शैली नागर शैली तथा द्रविड़ शैली का मिक्ष्रण हैं तथा यह मध्य भारत में प्रचलित हुई थी| यह शैली विंध्य से कृष्णा नदी तक देखी जा सकती है| आपको यहाँ नागर तथा द्रविड़ दोनों शैलियों के गुण मिल सकते हैं| और आपको इनमे जो ख़ास विशेषता देखने को मिलेगी वो यह है की इन मंदिरों में खुला प्रदिक्षणा पथ बनाया जाता है जबकि नागर शैली में बंद प्रदिक्षणा पथ बनाये जाते थे जो की बरामदे तक ही ढाका हुआ होता था| और साथ ही बहुत सुसज्जित मंडप यहाँ होता है| जैसे:- डोड्डाबसप्पा मंदिर – दम्बल, बादामी गुफा मंदिर|

मंदिर की छत पिरामिड जैसा क्यों ?

यदि देखा जाए तो मंदिर का शिखर एक बिंदु के रूप में होता है और यदि ब्रह्माण की बात करे तो एक समय पर वह भी एक बिंदु के रूप में ही था| और यह पिरामिडनुमा शिखर ब्रह्माण्ड से सकारात्मक उर्जा को संचित करके अन्दर खाली स्थान में भर देता है| और मंदिर में आने वाले सभी भक्तो को इस उर्जा के भण्डार से भर भर कर सकारात्मकता मिलती है|

और इस तरह की आकृति (मंदिर के नुकीले शिखर) के कारण सूर्य की किरणें उसे प्रभावित नहीं कर पाती और त्रिकोण के अंदर एवं नीचे वाला हिस्सा बाहर अधिक तापमान होने के बावजूद ठंडा रहता है। अब ऐसे कई भक्त/लोग होते हैं जो की सफ़र पर निकलते हैं और जब वो लोग थक से जाते हैं तो वो यहाँ मंदिर में आकर भी विश्राम कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें यहाँ उर्जा का भरपूर भण्डार भी मिलेगा और बहार गर्म तापमान के होते हुए भी अन्दर मंदिर में ठंडक मिलेगी| और इस तरह उनकी थकान भी जल्दी से दूर हो जाएगी|

यदि कभी आप किसी दुसरे शहर या प्रदेश के मंदिर में गए होंगे तो जाते हुए आपने यह ज़रूर गौर किया होगा की मंदिर पहुँचने से पहले ही मंदिर दूर से ही दिख जाता है| और दूर से होकर भी सबसे पहले हम उसके शिखर को ही देखते हैं| तो इस प्रकार हम मंदिर के शिखर को दूर से ही देखकर मंदिर का पता लगा सकते हैं की वह कितनी दूर और कहाँ पर स्थित है| और तो और साथ इस इसके एक मंजिला या मंदिर के शिखर को नुलिका बनाने का एक कारण यह भी है की मंदिर के भीतर भगवान् की प्रतिमा का वास (स्वयं भगवान् का वास) होता है और ऊपर छत के न होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रतिमा के ऊपर से चलने का पाप नहीं कर सकता|

यदि मूल रूप से देखा जाए तो मंदिर की वाश्तुकला बहुत ही कमाल है| आपको यहाँ सकारात्मकता, पवित्रता, शान्ति, ज्ञान, दिव्यता, संस्कार और अच्छी शिक्षा जैसे खूबसूरत और बहुमूल्य खजाने की प्राप्ति होती है| एक मनुष्य धन और इज्ज़त म्हणत से कम सकता है परन्तु इस खजाने को वह केवल मंदिर से ही प्राप्त कर सकता है| जीवन में जितना और चीजों का महत्व है उतना ही in चीजों का भी है जो की मंदिर से प्राप्त होती है| यही कारण है की लोग रोज़ मंदिर जाते हैं, वहां पूजा, पाठ, प्रार्थना, प्रदिक्ष्णा करते हैं| क्योंकि इन सबसे उन्हें कुछ भाग में पुण्य और शुद्धि की प्राप्ति होती है| अब यदि आप यह सोच रहे हैं की आपको तो 100 प्रतिशत में यह सब चाहिए तो वह एक दिन में तो मिलने से रहा, और यदि आप रोज़ जाकर सच्चे दिल से यह सब करते हैं तो अवश्य से आपको एक दिन 100 प्रतिशत के आसपास यह सब कम लेंगे|

आपको एक रोचक बात और बता दें की मंदिर की छत ध्वनि सिद्धांत को ध्यान में रखकर बनाई जाती है, जिसे गुंबद कहा जाता है। और शिखर के केंद्र बिंदु के ठीक नीचे मूर्ति स्थापित होती है। और यही कारण है की जब मंत्र उच्चारण किया जाता है तो वो ध्वनि और मंत्रो के शुद्ध स्वर गूँज करके वहां उपस्तिथ सभी भक्तो को प्रभावित करते हैं और उनका शुद्धिकरण करते हैं| और इसी के साथ उन्हें मन की शान्ति की अनुभूति भी होती है| और चूंकि मंदिर में मूर्ती बीच में स्थापित होती है तो सारी उर्जा का प्रहाव सामान रूप से चारो ओर होता रहता है|

और यह सब वैज्ञानिकी तौर पर प्रमाणित भी हो चूका है| और धीरे धीरे सारी दुनिया इसकी महत्वता समझ रही है और अपना भी रही है| एक मंदिर में जो और आपको देखने को मिलता है वो आपको और कहीं नहीं मिलेगा| मंदिर में हमेशा ही वो शुद्ध उर्जा और शांति आपको होता रहेगा| और कभी आप गौर करके देखना की उस उर्जा के प्रवाह के कारण कई बार हमें उस उर्जा की अनुभूति भी होती है और एक अन्य तरह की गर्मी का हमें आभास होता है| कोई शक नहीं है की मंदिर से ज्यादा बेहतर जहग इस दुनिया में कोई है|

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